शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

नई कविता

शुरू करो
शुरू करने से अंत होगा।
सोंचा बहुत,
पर सोंचने से क्या होगा।
जीवन है
संघर्ष से सरल होगा।
खेत है खलिहान है,
देखने से क्या होगा।
लगे रहो,
लगने से ही  प्राप्त होगा।
परीक्षा है,
पढ़ते रहो,पढ़ने से ज्ञान होगा।
अरे देखो न,
देखने से क्या होगा।
समय है,
देखते देखते ही कम होगा।
रात है,
सब्र रखो, सब्र करने से ही दिन होगा।
दीपक नहीं है,
निरास मत हो।
पूरनमासी का चाँद काले बादलों से ढ़का है।
निरास मत हो।
आशा रखो काला बादल साफ होगा।
ये लो कुछ नहीं,
पत्थरों से ही प्रकाश होगा।

चंद्रसेन "अंजान"

बुधवार, 25 जनवरी 2017

गणतंत्र दिवस पर विशेष

भारतीय गणतंत्र की 68 वीं वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनायें श्रीमान

जय हिन्द
          जय भारत

हर कण दीपित उच्च पताका।
यही भारती को मन भाता।
पवन गुंजरित करती है ।
हर ओर महानायक गाथा।
सीमा पर अडिग महारथ है।
हर स्वांस देश को यह पहुंचाता।
ये तेजस्वी औ ओजस्वी
पूरनमासी का चंदा है।
पुलकित है सिंधू झेलम औ रावी
है मधुमय गान किए।
हर्षित है गंगा यमुना भी
ये नृत्य दिखाती मान लिए।
हर दिशा मयूर नर्तकी है
जो पुष्पित तंत्र बखान किये।
खेतों की सुरभित हरियाली पर
गगन तलक इठलाता है।
गुलमर्ग पिपाशा अभिलाषा पर
नगाधिराज बलखाता है।
भारत सन्तति कर्मठ युद्धा
अमरीका चीन बताता है।
पर हाय!! ये राजनीति छल की
जो पीएम तक शर्माता है।
नेता की नियत बुरी तमसी
जो भारत को ही दबाता है।
अमृत राशी गंगा को जो
विशानुरक्त बताता है।
कैसे कैसे पाप धो दिए माता तूने।
किस किस का उद्धार कर दिया माता तूने।
पर हाय!! कि जब से नेता जी उतरे है गंगास्नान किये।
गंगा की पावन निर्मलता कलुषित और विषाक्त लिए।
अब कैसे स्वच्छ बनें गंगा अब विषय यही सर्वोत्तम है।
ये अपने तन मन देखे न
और गंगा तुझको साफ किये?
गर कर लेते साफ आचरन
गंगा निर्मल हो जाती।
और तुम्हे क्या बतलाएं जिह्वा
है मेरी दुःख जाती।
और तुम्हे क्या बतलाएं........

चंद्रसेन"अंजान"

चुनावी कविता

चुनावी बसंत की बहार आयी है।
वादों और दावों की सौगात लायी है।
सारे मुद्दे अब हाँ जी मंचो पर आयें हैं।
जाति और धर्म का ये रोग लगायें हैं।

नेताओं का मिलना अब आम हो जाये है।
क्षेत्र विकाश अब ध्यान इन्हें आये है।
देखके बयार दल बदल ये जायें है।
जीतने के बाद कभी नजर न आयें है।

दामन जिनके रंगे हुए है निर्दोषों के खून से।
ऐसे प्रत्याशी को कैसे चुन सकते हैं झुण्ड से।
आप हैं विधाता कर्मकार संविधान के।
समझ बूझ वोट करें चुनें उम्मीदवार के।

चंद्रसेन अंजान
(ALLAHABAD UNIVERSITY)

चुनावी कविता

चुनावी बसंत की बहार आयी है।
वादों और दावों की सौगात लायी है।
सारे मुद्दे अब हाँ जी मंचो पर आयें हैं।
जाति और धर्म का ये रोग लगायें हैं।

नेताओं का मिलना अब आम हो जाये है।
क्षेत्र विकाश अब ध्यान इन्हें आये है।
देखके बयार दल बदल ये जायें है।
जीतने के बाद कभी नजर न आयें है।

दामन जिनके रंगे हुए है निर्दोषों के खून से।
ऐसे प्रत्याशी को कैसे चुन सकते हैं झुण्ड से।
आप हैं विधाता कर्मकार संविधान के।
समझ बूझ वोट करें चुनें उम्मीदवार के।

चंद्रसेन अंजान
(ALLAHABAD UNIVERSITY)

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

गुरु को समर्पित एक पत्र

निज गुण अवगुण त्याग तात मैं तेरे शरण को धाया था।
मैंने तो सादर प्रणाम गुरु चरणों तक पहुँचाया था।
मैं मन चंचल हीन बिचारी खोट सहस्र हजारी था।
मन ही मन में घोर आश्चर्य क्यूँ  प्रभू आपने धारया था।
हमने तो मुस्कान बिखेरी पर पारा नहीं बढ़ाया था।
दंडवत प्रणम्य उद्गम्य शिखा कंचन का बोध कराया था।
बदले में आशीर्वचनों का कवच मनोहर माँगा था।
पर प्रभु हमने कभी नही यूँं जिह्वा को कल्पया था।
श्रापों के ऊपर श्राप दिए पर डर कर न घबराया था।
क्या भूल भूलमें भूल हुआ।
क्या फूल चुभे जो सूल हुआ।
क्या मर्म दुःखें जो दर्द हुआ।
क्या शिष्य बुरे जो क्लिश्य हुआ।
परसुवंश अवतंश आप है गुरु हमारे।
सुधियों में है सुधी आप है गुरु हमारे।
वक्ताओं में प्रवक्ता आप है गुरु हमारे।
गुरुओं में है गुरु आप हैं गुरु हमारे।
अब जो भी कलुषित कर्म किये सब माफ करो।
हम है अधमी है खल पापी पर गुरु आप सब माफ करो।
एक नई दिशा उपदेश थम्हा सब माफ करो।
अब करुण निवेदन एक कि गुरु सब माफ करो।

चंद्रसेन अनजान

हास्य् व् श्रृंगार


आज कल के सामाजिक परिवेश से जुड़ा हास्य्

मुख है क्यूँ लटका हुआ जी आम की तरह।
चलते हैं आगे पीछे बॉडीगॉर्ड की तरह।
इनको जी ऐर गै न ये यार हैं समझों।
ये हँसने वाले बैंड हैं हसबैंड न समझो।

लड़कियों के आगे पी्छे चलने वाले लड़कों को समर्पित

जबाब देने में देरी को इनकार मत समझना।
मुस्कुरा बस दे तो इसे  प्यार मत समझना।
मालूम है सरीफ नहीं हूँ मैं भी यहाँ।
पर सर्द ओस की बूंदों को बारिश भी मत समझना।

जो ऑनलाइन होकर भी चैट ऑफ किये फिरते है।
मोहब्बत की गलियों में अभिमान लिए फिरते है।
ऐसे छलिये को रुक्सत जहाँ तन्हाई मिले।
ख़रीदे जो दाल तो साथ में कणकाई मिले।

गैर की बातों को तुम ध्यान क्यूँ देती हो।
दहसत की इनायत को सम्मान क्यूँ देती हो।
वो तो कातिल है रिंदे के मोहताब का।
फिर भी तुम उसे इतना अधिकार क्यूँ देती हो।

दिल की कूँचों की किलकार हो तुम।
बसंत की भीनी कोकिल बयार हो तुम।
कल से जो छुप छुप के देख रही हो ,
लगता है मेरे इश्क की परवान हो तुम।

आप सभी के खिदमत में....

अपने  इरादों से अपनी तकदीर लिखेंगे।
शांति से ही हाथो में नई लकीर मढ़ेंगे।
हम सूरज की तप्त  अनल आहुती।
लोहों को गला इतिहास रचेंगे।
चंद्रसेन "अंजान"

रविवार, 8 जनवरी 2017

ट्रेन दुर्घटना पर कविता

सूर्य उदित होते ही ऐसा समाचार था आया।
काल ने ऐसा नाद किया कि घोर अँधेरा छाया।
बच्चे बूढ़े और जवान सबके सब थे परेसान।
इंदौर और पटना एक्सप्रेस पर था यमदूतों का महाकाल।

ऐसी घनघोर तबाही में,वो आश कहीं थी भटक गई।
जो कल तक देखा करती थी,अरमान सुरक्षित सफरों की।
वो किलकारी जो थी प्यारी,पल भर में ही तो दूर हुई।
क्यों मम्मी पापा दादा और दादी से भी महरूम गई।

अब हर घटना की राजनीति करना नेता जी बंद करो।
हो सके देशहित में तो कुछ रहने खाने का  यत्न करो।
उज्जवल भविष्य कीआशायें,हम देख नहीं सकते अब है।
यदि संभव हो हे कर्मवीर!  लौटा दे मेरे प्राणासीन

चंद्रसेन "अनजान"